अभी दो दिन पहले मैंने एक लेख लिखा था| उस लेख पर मुझे बहुत तगड़ा थ्रस्ट मिला| उसके पीछे दो मूल्य कारण है| पहला, लेख का टाइमिंग सही नहीं था| दूसरा, लेख कुछ ज्यादा ही लम्बा हो गया था| टाइमिंग सही नहीं होने का तात्पर्य यह है कि उसी समय समाज में अशांति फ़ैलाने की कोशिश हो रही थी| तथाकथित राजपूत समाज के ठेकेदार विरोध के नाम पर उपद्र मचा रहे थे| इससे हुआ क्या कि जो लोग सही सोच रखते है उनके बीच उत्पाद को लेकर गुस्सा था| गुस्से ने उस लेख से कुछ सेलेक्टिव मसलों को शोर्टलिस्ट किया| फिर ओफेनसीव हो गए| बहुत लोग ऐसे थे जो आज तक मेरे लेख से असहमत नहीं रहे थे उन्होंने न सिर्फ लिखकर बल्कि फोनकर मुझसे इसकी शिकायतें की| मैंने अपने लेख को पांच बार खुद पढ़ा| मुझे सबकुछ ठीक लगा और मै अभी भी उस स्टैंड पर कायम हूँ| मेरा लेख डिस्टॉर्टेड हिस्ट्री के विचारधारा पर था जहाँ उठ रहा विवाद और विजुअल मीडिया मेरे केंद्र में था| बस एक जगह बलंडर हो गया था, जिसे स्वीकार्य करने में मुझे कोई गुरेज नहीं है| एक पैराग्राफ था जहाँ पर खाप पंचायत और पर्सनल लॉ बोर्ड आदि से इसकी तुलना कर दी थी| सिर्फ वही ऐसा था जिससे लग रहा था कि मैं अप्रत्यक्ष रूप से करणी सेना का सपोर्ट कर रहा हूँ| जबकी इंटेंशनली मेरा ऐसा कोई लक्ष्य नहीं था|
उसे लिखने के पीछे मेरा इंटेंशन यह था कि मैं सामानांतर उन संस्थाओं को भी रखकर यह बता सकूँ कि ऐसे ठेकेदारी ना सिर्फ राजपूत समाज में नहीं है बल्कि मुस्लिम समाज, आदिवासी समाज या फिर बाक़ी के जातिगत समाज में भी है जिसमें खाप और पर्सनल लॉ बोर्ड का उदाहरण भी दिया था| लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि उन संस्थाओं के आधार पर इसका समर्थन किया जा सके| यह लाइन मुझसे मिस हो गई थी| लेकिन शब्दों का हेर फेर इतना गलत था कि उसका अर्थ बहुत ही अलग निकल रहा था| मै खुद उस पैराग्राफ को पढू तो मै भी शायद उसे वैसा ही समझता| मैंने फेसबुक पर इसलिए एडिट नहीं किया क्युकी मै नहीं चाहता था कि जो लोग अपनी असहमति जता रहे थे उनकी असहमति झूठी हो| लेकिन अपने ब्लॉग पर एडिट (सिर्फ उसी पैराग्राफ को) कर चूका हूँ| इसको थोडा और आगे बढ़ाता हु| सबसे पहले हमें यह समझना जरूरी है कि समाज के हर तबके का एक ऐसा समूह है जो ठीकेदारी करता है| हमें सबकी मुखालफत करनी चाहिए जो भी अपनी असहमति उठाने या बात मनवाने के लिए किसी भी तरह से हिंसा का सहारा लेता है|
देश में वोलंटरी संस्था खासकर 70 से बाद ही उभरी है| इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़े है लेकिन सकारात्मक के अपेक्षाकृत नकारात्मक बहुत ज्यादा हुए है| लोकतांत्रिक विरोध करने के मूल्य के नजरिए से ‘चिपको आन्दोलन’ एक बढ़िया प्रयास था, जिसे हम स्कूल के पाठ्यक्रम में बहुत शान से पढ़ते है| मजदूर सामने आए और अपने वेतन को लेकर अपना मुद्दा उठाया| ‘राईट टू इनफार्मेशन’ का प्रयास हो या ‘अन्ना आन्दोलन’ का, लोगों को जब-जब लगा है कि देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं डिलीवरी में असफल रही है तब-तब लोग अपने आप वोलंटरली सामने आए और अपने हक़ का इजहार किया| खासकर 21वीं शताब्दी में सिविल सोसाइटी कहीं न कहीं अपनी उपस्तिथि दिखाने की कोशिश की है| इसी काम को तो हम सोशल वर्क कहते है| लेकिन इसका दूसरा पक्ष निकल के आया जो समाज की अशांति का भागिदार बना| हिंसात्मक विरोध को अपना थाती माना| करणी सेना, रणबीर सेना, संभाजी सेना, समस्त हिन्दू आघाडी सेना, भीम आर्मी, हैदराबाद वाला रजाकार समूह, दलित पंथर, खाप पंचायत, पर्सनल लॉ बोर्ड, बजरंग दल और आरएसएस इसका प्रतिफल है|
ऐसे समूह दो प्रकार के है| एक तो वो जो परंपरागत बल प्रयोग करके अपनी बात मनवाना चाहते है| दूसरा वो जो हथियार उठा अपनी बात मनवाना चाहते है| सही दोनों में से कोई नही है| तरीका बेहद ही घटिया रहा है| कुछ ऐसे है जो कुछ मानवतावादी काम करके अपने कुकर्मों को छुपाने की कोशिश करते है| एक जो सदियों से बलशाली रहा है उसे हथियार की जरूरत नहीं पड़ी और जो कमजोर तबका है उसे लगता है कि सत्ता, न्याय और हक़ बन्दुक की नली से ही निकलती है| समाज की यह प्रवृति नई नहीं है| अपने देश का एक आदिवासी समाज है वो भी अपनी बातें रखना चाहता है लेकिन लोकतांत्रिक रास्ते अख्तियार करने के बजाए हथियारों से संवाद करना चाहता है| उसका एक अलग वर्ग है जो समर्थन भी करता है| ऐसे मुस्लिम समाज में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है जो विविधता और धर्म की आड़ लेकर सैवंधानिक प्रक्रियाओं से अपने आप को ओझल रखना पसंद करता है| राजीव गाँधी के समय इसपर जबरजस्त राजनीती भी हुई थी जिसमें एकल बहुमत का फायदा उठाते हुए कोर्ट के आदेश को भी पलट दिया था| कहीं न कहीं राजनितिक संवर्धन रही तो रही ही है|
ऐसी चीजें सामानांतर हर वर्ग में है और गलत भी है| खाप पंचायत बनाकर बैठे अलोकतांत्रिक लोग जिसे किसी ने चुना नहीं है वो न्यायलय के सामानांतर न्यायिक प्रक्रिया चलाते है| उनके आदेश बहुत ही ज्यादा चौकाने वाले होते है जिसे खासकर लोकतांत्रिक देश तो कतई स्वीकार्य नहीं कर सकता है| ऐसे ही नब्बे के दशक में, बिहार में सवर्ण जातियों की मूल रूप से जाति आधारित भूमिहार ब्राह्मणों का एक संग़ठन ‘रणबीर सेना’ हुआ करता था| कहने को तो अपने आप को किसान संगठन बताते थे लेकिन हिंसा उनका एकमात्र रास्ता था| ध्यान दीजिए यह सेना नक्सलियों के खिलाफ बनाई गई थी| नक्सली ज्यादातर जातिगत पैमाने पर निचे से आते थे| यहाँ पर जातिगत क्लैश था| नक्सली जिनका उद्देश्य ही यही था कि बन्दुक के नोक पर सत्ता हासिल की जाए जिसके खिलाफ हमारा लोकतांत्रिक तंत्र भी रहा है| ऐसे में कोई ऐसा समूह खड़ा होता है जो नक्सल जैसे हिंसात्मक समूह का विरोध हिंसात्मक तरीके से करता है, तो क्या ऐसे तथाकथित ‘रणबीर सेना’ का समर्थन किया जा सकता है? लेकिन ब्राम्हण लोगों का एक बड़ा समाज इसका समर्थन करता रहा था|
अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली में नीले रंग को प्रतिक बनाकर भीम आर्मी नामक संस्थाएं सामने आई| जामवड़ा हुआ और एक बड़े स्तर पर दलित युवाओं को बर्घलाया गया| जिन युवाओं को दलित जाती के चंद ठेकेदारों की बातें सुनने के बजाए खुद की वास्तविक हक़ की बात करनी चाहिए थी वो नीली टोपी पहने भ्रमित हो रहे थे| मुद्दे गलत नहीं उठाए जाते लेकिन मंशे बहुत ही ज्यादा गलत होते है| ऐसे ही सत्तर के दशक में दलितों का एक मिलिटेंट समूह ‘पंथर’ था| महाराष्ट्र में बनाई गई इस संस्था का वही राग था जिसके लिए सविधान में तमाम तरह के अधिकारों को सुनिश्चित किया गया है| मानने को वो भी बाबासाहेब को मानते थे लेकिन क्या बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने कभी कहा था कि ऐसे संगठन बनाया जाए? मुद्दे वही उठाए जिसे बाबा साहेब पहले उठाया करते थे| दलितों के उत्थान के लिए अपने अथक प्रयास से बाबासाहेब ने भविष्य के संभावनाओं को समझते हुए कहीं भी किसी भी प्रकार की कमी नहीं की| लेकिन उसके बाद भी उनके मानने वाले अनुयायी उनके द्वारा स्थापित किया गया कानूनी तरीका अख्तियार करने के बजाए हिंसात्मक रवैया अपनाते है जिसके खिलाफ बाबासाहेब हमेशा से रहे थे|
ठीक ऐसे ही कई प्रकार के सेना, दल और सभाएं बनाई गई जिसका लक्ष्य सामाजिक अशांति ही रहा है| महाराष्ट्र का बना संभाजी सेना और समस्त हिन्दू आघाडी सेना भी ऐसे ही उदहारण है| हालाँकि इनके विचारधारा कहीं न कहीं करणी सेना के सामानांतर है जो ऐतिहासिक पहलुओं को संजोय के रखने के बहाने अपनी दुकाने चलाते है| सीधी सी बात है| मान लीजिए कि कल गए कोई भी करणी सेना का एक सदस्य फिल्म देखता है और उसको कही भी आपत्तिजनक नहीं लगती है| ऐसे में वो मीडिया में आकर कह दे कि सबकुछ सही है तो क्या उसका अस्तित्व रह पाएगा? फिर हम इसमें क्यों उलझे हुए है? यही मुख्य कारण है कि करणी सेना किसी भी कीमत पर फिल्म को लेकर सकारात्मक विचार नहीं रख सकती बेसक आप पूरी फिल्म की शूटिंग दोबारा क्यों न कर लो| देश में ऐसे ही और भी बहुत सारे समूह हुए है| हैदराबाद का मुसलमानों का एक मिलिटेंट समूह हुआ करता था जिसे ‘रजाकार’ नाम से जानते थे| उसी समूह से निकला हुआ ओवैसी की पार्टी AIMIM है जो पहले MIM थी| इसके अलावां आरएसएस और बजरंग दल को कौन नहीं जानता| इनके बारे में तो पूरी उपन्यास लिखी जा सकती है|
राजीव गाँधी के समय पर्सनल लॉ बोर्ड के लिए राजनितिक संवर्धन था और आज की जो सरकार है वो आरएसएस जैसे अलोकतांत्रिक समूहों को अपने राजनितिक छत्रछाया में रखती है| इसके पीछे भी एक कारण है कि मुफ्त में एक बड़ा युवा वर्ग ‘राजनितिक कार्यकर्ता’ के रूप में मिल जाता है| ये चीजें राजनितिक दल को भी अच्छा लगता है| अंतिम बात, मैंने अपने कमेंट में ‘लोगों की भावनाओं’ की बातें की थी| मेरा कहने का यह बिलकुल मतलब नहीं था कि देश “सिर्फ” भावनाओं से चलता है| देश कानून-व्यवस्था और जन भावना दोनों से चलता है तभी देश बढ़िया से चल पाता है| लेकिन ध्यान यह रहना चाहिए कि जनभावना, कानून के ऊपर न जा पाए| भारत जैसे विविध को चलाना बहुत आसान काम नहीं है| लोगों की भावना और विश्वास ही है जिससे बहुत चीजें कंट्रोल में होती है| मान लीजिए कि देश में जितने समुदाय है सब के सब देश के व्यवस्था के प्रति विश्वास छोड़ दे तो क्या हमारे पास ऐसा तंत्र है जो एक बड़े समूह को कंट्रोल कर सके|
इसे और नहीं बढ़ाना चाहता नहीं तो फिर लम्बा ही जाएगा| मै कोशिश करता हु कि अमूमन 1500 से 2000 शब्दों के बीच अपनी बात रखूं| अब तक का यही कन्वेंशन रहा है| इसके पीछे भी एक कारण है| पहली बात कि मै अपना सबमिशन पूरा-पूरा कर पाने में सफल होता हूँ| दूसरा लम्बे लेख वही लोग पढ़ते है जिनमे पेसेंस होता है| इससे होता यह है कि फालतू लोगो का जमवड़ा कम होता है| पिछला लेख मैक्सिमम लिमिट क्रॉस कर गया था| बस मेरा कहना यही है कि लेख का विषय वो था ही नहीं जिसे समय के तौर पर समझा गया| मैंने हिस्टोरिकल इवेंट्स का उदहारण देकर उस मिथ को चुनौती देने की कोशिश की जो संवाद के दौरान डिस्कोर्स बदलते है| हिस्ट्री डिस्टॉर्टेड करना एक तात्कालिक प्रक्रिया नहीं है| एक बहुत लम्बा प्रोसेस हो सकता है| विजुअल मीडिया खासकर फिल्म इंडस्ट्रीज इसका एक माध्यम हो सकती है| यही कारण था कि मैंने भगत सिंह का एक खुबसुंदर उदाहरण दिया था| फिल्म में क्या है उसपर कुछ नहीं लिखा था| लिख भी कैसे सकता था जब देखा नहीं हो| किसी भी हिस्टोरिकल इवेंट्स के साथ छेडछाड नहीं होनी चाहिए क्युकी यह ऐतिहासिक तजुर्बा का एक जरिया है| कल बारी हमारे स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गाँधी की भी आ सकती है जिससे एक राजनितिक समूह असहमत रहा है|
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