किसी भी कोर्स का सिलेबस देखकर पता लग जाता है कि हमें पढना क्यों है? और क्या पढना है? इसका उपयोग कहाँ होगा? लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में इन चीजो को लेकर हैरान रहता हु| फर्जीवाडा के क्षेत्र में सिर्फ इंजिनियर ही बदनाम है, जबकी सच्चाई यह है कि हर क्षेत्र में यही रोना लगा रहता है| अगर आप पत्रकारिता के सिलेबस उठाके के देखो तो वो सारी चीजें पढाई जाती है जिसकी जरूरत एक स्वस्थ्य पत्रकारिता के लिए होती है|
मै आज के हालात को देखकर कह सकता हु कि इंजीनियरिंग की तरह यहाँ भी वही हाल है| इकोनॉमिक्स, हिस्ट्री, सामाजिक परिपेक्ष की चीजें, एथिक्स के अलावां बहुत सारे अच्छे अच्छे टॉपिक्स है| जबकी आज की हालात यह है कि जितना बढ़िया लच्छेदार शब्द में फालतू की बात को इंटरेस्टिंग बना सकते हो उतने ही बढ़िया पत्रकार हो| कम्युनिकेशन स्किल भी जरूरी मापदंड है लेकिन इतना भी नहीं है कि वो मूल बात को प्रभावित करने लगे|
आज के माहौल में अगर देखे तो कुछ एक गिने चुने पत्रकार को छोड़कर कोई भी मूल समस्या के बारे में जिक्र नहीं करना चाहता| जितने भी हाइलाइटेड पत्रकार है उनके ज्यादातर प्राइम टाइम में इर्रेलेवेंट डिस्कशन मिलेंगे| जिसने पर्यावरण में घटते जानवरों के बारे में आज तक चर्चा नही की उनसे दस-दस प्राइम टाइम ‘शक्तिमान’(घोडा) के ऊपर की, वो इसलिए नहीं की जानवरों की रक्षा हमारी ड्यूटी है बल्कि राजनितिक संवेदना हासिल करने के लिए| क्या चुनाव लड़ने के लिए डिग्री कोई मापदंड है? नहीं है तो फिर डिग्री दिखने और ना दिखाने के प्राइम टाइम का कोई औचित्य ही नहीं है| चुनाव लड़ने के लिए एजुकेशन क्वालिफिकेशन चाहिए कि नहीं वो एक बिल्कुल अलग विषय है वहाँ चर्चा अलग के की जा सकती है|
किसानों को लेकर प्राइम टाइम करते तो है लेकिन सिर्फ राजनितिक गति के लिए| किसान आत्महत्या इसलिए करते है क्युकी सरकार ख़राब है| टाई पहनकर स्टूडियो में अंदाजा लगा लेते है कि ग्राउंड लेवल की क्या स्तिथि है| किसान क्यों और कैसे चक्रविहू में फसे है इसपर चर्चा करना मुनासिब नहीं समझते है| सबसे ज्यादा मीडिया में गंद प्रवक्ताओं में मचा रखा है| वो बोलते वही है जो पढ़कर कर आते है चाहे प्रश्न कुछ भी क्यों न हो| किसान हमेशा से गोलचक्र में फसते रहे है|
खासकर मझोले किसान बड़े किसान बनने के चक्कर में जो होता है वो भी खोने लगते है| पेस्टिसाइड के बाजारवाद जैसी मुद्दों के बारें में चर्चा करते मैंने बहुत कम सुना है| ऐसे ही किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा करते भी है तो सिर्फ राजनितिक मतलब से| पत्रकारिता भी लोकतंत्र के एक खम्भे की तरह होती है जिसकी कमी हमेशा खलती रही है|
जापानी बिमारी की वजह से मरे इनके बच्चों का दुःख किसी को नहीं है| कुछ गिने चुने पत्रकार जैसे राज्यसभा टीवी के पत्रकार श्याम सुन्दर जी उड़ीसा के मनकडिया आदिवासी से संवाद करते हुए जब वहाँ के बच्चो के शिक्षा के बारे में पूछते है तो सरकारी डिलीवरी की पोल खुलती नजर आती है| मुझे समझ नहीं आता कैसे 30 बच्चे मैट्रिक (10वीं) के एग्जाम देते है और उसमे से मात्र 5 बच्चे जैसे तैसे पास हो पाते है|
बड़े महानगरों के कॉलेजों जहाँ एडमिशन के कटऑफ 99% जाता है वहाँ इनके किसी भी बच्चे की पहुचने की सम्भावना लगभग ना के बराबर हो जाती है| ऐसे कैसे उन्हें मुख्य धारा में लाया जाएगा? श्याम सुंदर जी का एक और रिपोर्ट मध्यप्रदेश के शहरिया आदिवासियों के बारें में पेश करते है जिससे यह पता चलता है कि वहाँ आए दिन बच्चों की कुपोषण से मौत होती रहती है| फुले हुए पेट और पतले-पतले हाथ पैर वाले बच्चों की पीड़ा को दिखाने वाला भी कोई नहीं है|
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