क्या सच में लोकतंत्र के साथ कुछ दिक्कत है ?

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लोकतंत्र 20वीं शताब्दी का एक बहुत ही सार्थक शब्द रहा है| 24 जनवरी को न्यू यॉर्क टाइम्स में छपे लेख “Is There Something Wrong with Democracy?” ने कुछ सवाल खड़े किए है| पहले ही लाइन में लिखा गया है कि अमूमन 200 सालों बाद लोकतंत्र की वृद्धि लगभग रुक सी गई है| हंगरी और वेनेजुएला का उदहारण देते हुए कहा गया है कि ये देश वापस लोकतंत्र से राजशाही शासन की ओर लौट रहे है| पश्चिम के देशों का भी विश्वास लोकतंत्र से कमजोर सा पड़ता दिख रहा है| सवाल करते हुए पूछा गया है कि क्या सच में लोकतंत्र परेशानियों में है? क्या सच में यूरोप और अमेरिका जैसे पुराने और प्रभावशाली लोकतंत्र सुरक्षित है? आखिर क्यों लोग स्वतः आके अपने लोकतंत्र को ध्वस्त कर रहे है? ये सवाल वाकई में बहुत ही गंभीर और संजीदा है जिसका उत्तर ढूँढना बहुत आसान नहीं है| लोकतंत्र के दोनो पहलु स्ट्रक्चरल और फंक्शनल दोनों मुद्दे बेहद अहम है| क्या लोकतंत्र का फंक्शन उसके स्ट्रक्चर को प्रभावित कर रहां है? इससे पहले संक्षेप में हमें यह जानना जरूरी है कि लोकतंत्र के सफ़र का शुरुआत कैसे हुआ?

खासकर अब कुछ ऐसे सवाल पैदा हुए है जो पुराने विचारकों के दिए शब्दों को आज सही ठहराते दिख रहे है| अरस्तू ने लोकतंत्र की आलोचना करते हुए कहा कि लोकतंत्र बहुसंख्यकों का शासन है, क्योंकि बहुसंख्यक कमजोर गरीब और असहाय लोग ही हैं| इसलिए लोकतंत्र उन्हीं के शासन का दूसरा नाम है| इसके मुताबिक लोकतंत्र की बड़ी कमजोरी है कि आम मतदाता का सर्वश्रेष्ठ जनप्रतिनिधि और नीति चुनने में असक्षम होना| ऐसा इसलिए है क्योंकि आम मतदाता शासन की बारिकियों को समझने और सर्वश्रेष्ठ जनप्रतिनिधि चुनने के लिए शिक्षित नहीं किए गए हैं| कहीं न कहीं अरस्तू द्वारा कहे गए शब्द आज सत्य प्रतीत हो रहे है| लेकिन इसके उलट हमारे इतिहास के शिक्षक रहे श्री उपेन्द्र चौबे सर ने एक सवाल किया कि इसकी क्या जरूरी है कि पढ़े लिखे लोग इस समस्या के ज्यादा भागीदारी नहीं हो सकते? उनकी चिंता भी जायज है| यह जरूरी नहीं है कि पढ़े लिखे लोग अपने प्रतिनिधि चुनने के ज्यादा काबिल हो| खासकर भारत जैसे देशों में बेसक चुनाव के बाद नेता उनके उत्तरदायी हो न हो लेकिन चुनाव के वक्त एक गरीब और अनपढ़ लोगों में भी गजब का आत्मविश्वास देखने को मिलता है|

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प्राचीन यूनानी विचारक हेरोडोटस ने लोकतंत्र को बहुमत का ऐसा शासन माना, जिसमें नागरिकों के अधिकारों की समानता हो तथा राजनीतिक सत्ताधारी अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी हों| वही दूसरी ओर प्लेटो तथा अरस्तू जैसे विचारकों ने सर्वोत्तम शासन-व्यवस्था का पता लगाने के लिए विभिन्न प्रकार की शासन व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि लोकतंत्र एक उपयुक्त शासन व्यवस्था नहीं है| अरस्तु सिमित लोकतंत्र को स्वीकार्य करते है| यूनानी राज्यों की ख़ास बात यह थी कि उनके नगरों की संख्या तथा आकार में बहुत छोटे थे, इसलिए, यहाँ नागरिकों को एक स्थान पर इकट्ठा करके उनकी सहमति प्राप्त की जाती थी| यही कारण है कि यूनानी राज्य-नगरों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र प्रचलित था| उसमें भी सभी लोगों को वोट देना का अधिकार नहीं हुआ करता था| कुल मिलाके 10% ही लोग थे जो शासन चलाते थे| इसलिए इसे आदर्श शासन प्रणाली नहीं माना जा सकता| इसके अलावां प्राचीनकाल में रोम भी एक गणतांत्रिक देश था लेकिन उसके बाद राजतन्त्र बन गया| रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दास प्रथा का अंत हुआ और सामंतवादी युग शुरू हो गया| इसलिए लोकतांत्रिक विचार पनप नहीं पाया|

मूलरूप से लोकतंत्र की आधुनिक अवधारणा 16वीं शताब्दी में शुरू हुई| पुनर्जागरण और धर्मसुधार आन्दोलन के फलस्वरूप बहुत सारे बदलाव हुआ| ना सिर्फ राजनितिक और सामाजिक चिंतन बल्कि नैतिक मूल्यों, प्राकृतिक अधिकारों, स्वतंत्रता तथा लोकतंत्रीय विचारों का समर्थन किया जाने लगा| ऐसे बदलाव की वजह से सामंती व्यवस्था को चुनौती मिली और कहीं न कहीं कमजोर से दिखे| इसके बाद धीरे-धीरे बहुत सारे विचारों का वैचारिक समर्थन मिलने लगा| इसमें से प्रमुख अंग्रेज विचारक जॉन लॉक थे जो यह मानते थे कि मनुष्य के जीवन, स्वतंत्रता, तथा संपत्ति का अधिकार जैसे कुछ प्राकृतिक अधिकार होते हैं, जिन्हें उससे कोई भी छीन नहीं सकता| ऐसे ही 18वीं और 19वीं शताब्दी के विचारकों ने उपयोगितावादी सिद्धांत मतलब अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख, के आधार पर लोकतंत्र का समर्थन करने लगे थे| इसके बाद समाज में मजदूर वर्ग का शोषण होने लगा था, तब नैतिक आधार पर लोकतंत्रीय राज्य को समर्थन मिलना शुरू हो गया था|  18वीं शताब्दी में अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा और फ्रांसीसी क्रांति आधुनिक लोकतंत्र के विकास का पहला महत्वपूर्ण स्टेप था| फ्रांसीसी क्रांति ने स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुता का नारा देकर लोकतंत्र को और प्रतिष्ठित किया|

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इसके बाद कार्ल मार्क्स उदारवादी लोकतंत्र की आलोचना करते हुए समाजवादी लोकतंत्र का विचार दिए जिसमें उनकी चाहत यह थी कि किसी भी मानव का मानव द्वारा शोषण न हो| इसके बाद धीरे-धीरे पूंजीवादी व्यवस्था को नष्ट करके मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी लोकतंत्र की शुरुआत रुसी क्रांति के द्वारा हुई| 20 वीं शताब्दी में  सर्वव्यापक व्यस्क मताधिकार की व्यवस्था करके इसे सम्पूर्ण जनता द्वारा शासन में बदला गया| 19 वीं शताब्दी में ही बहुत सारे लोकतांत्रिक विचार में अलगाव हुए| एक दुसरे की आलोचना करने नए व्यवस्था की स्थापना की जा रही थी| 20वीं शताब्दी में भी वही हुआ| लोकतंत्र की नई व्याख्याएँ प्रस्तुत की जाती रहीं, जिनमें निर्देशित लोकतंत्र, विमर्शी लोकतंत्र, सहभागी लोकतंत्र,  प्रक्रियात्मक लोकतंत्र, जनवादी लोकतंत्र और रैडिकल लोकतंत्र प्रमुख हैं| ये बदलाव आते गए| हर समय लोकतंत्र बदलता गया| 18वीं शताब्दी में लोकतंत्र की चुनौतियाँ कुछ और थी उसके हिसाब से चुनौतियों की रुरेखा तैयार की गई थी| वैसे ही 19वीं और 20वीं शताब्दी के अलग चुनौतियाँ थी| अब 21 शताब्दी के अलग चुनौतियाँ है जहाँ राजनितिक वैज्ञानिकों द्वारा नए प्रयोग की जरूरत है|

लोकतंत्र में आए वैचारिक ठहराव हंगरी और वेनेजुएला जैसे स्तिथियाँ उत्पन्न करते है| आज की चुनौतियाँ है उन्हें ध्यान में रखकर ही आगे की लोकतंत्र के सफ़र को आगे बढाया जाता है| कोई भी विचार या तंत्र अंतिम सत्य नहीं होते है सबमें बदलाव की संभावनाएं बनी रहती है| कई लोग बहुत अच्छे वक्ता होते है जो बचपन से ही बोलने में माहिर होते है| इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है वो सत्ता चलाने के काबिल हो| चुनाव में ऐसे ही नेताओँ को ज्यादातर मतदाताओं का समर्थन मिलता है, जिससे उनके हाथ सत्ता आ जाती है| हालांकि ऐसे लोग निहायती स्वार्थी और शासन चलाने में असक्षम होते हैं| ऐसे में जनता ठगी जाती है| इसका सबसे बढ़िया उदहारण भारत में देखा जा सकता है| भारत की राजनितिक पार्टियों में यह कोशिश की जाती है कि अपने दल में उन लोगों को शामिल किया जाए जिन्हें ज्यादा लोग जानते है| लोकतांत्रिक नजरिया तो यह कहता है कि सबका हक़ है किसी भी पार्टी में शामिल हो| लेकिन नैतिक नजरिया यह कहता है कि इस प्रक्रिया में लोग अपने प्रतिनिधि चुन नहीं रहे बल्कि अपने भावनाओं को सस्ते दामों में बेच रहे है|

लोकतंत्र के बड़े समर्थकों में से एह रहे जेम्स ब्राइस का मानना है कि सरकार के कामकाज का मूल्यांकन इस बात से होना चाहिए कि उसके कार्यकाल में जनता का कितना कल्याण हुआ| इन्होने लोकतंत्र की छः बड़ी खामियों का जिक्र किया है जो आज के समय में भी प्रासंगिक है| उनके मुताबिक पहली खामी है कि पैसों की ताकत से प्रशासन और विधायिका प्रभावित हो जाती है| खुद के स्वार्थों को पूरा करने के लिए राजनीती में आना और उसे एक धंधा बना कर रख देना लोकतंत्र की दूसरी खामी है| धन का बेवजह इस्तेमाल लोकतंत्र का तीसरी कमजोरी है| मतदाताओं का काबिल जनप्रतिनिधि की पहचान ना कर पाना लोकतंत्र की चौथी कमजोरी है| नेताओं का अत्यधिक दलगत राजनीति में लिप्त रहना लोकतंत्र की पांचवी कमजोरी है| सिर्फ और सिर्फ चुनाव जीतने के लिए, मतदाताओं को रिझाना और तुष्टीकरण की राजनीति करना लोकतंत्र की छठी और सबसे बड़ी कमजोरी है| आज के समय में ब्राइस की बातों सामानांतर रखे तो उनके बाद बहुत हद तक सही है|

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भारतीय परिपेक्ष में कुछ उदाहरण पेश करने का वक्त आ गया है| यह फंक्शनल लोकतंत्र की खामियों का उदहारण है| लोकतंत्र के डेफिनिशन के मुताबिक लोकतंत्र “जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है|” अब सवाल यह उठता है कि छोटे देशों के लिए ठीक है लेकिन भारत जैसे विशाल और विविध देशों के लिए क्या यह डेफिनिशन प्रैक्टिकल ग्राउंड पर फिट बैठता है? हर समाज की अपनी अलग समस्या है उसका प्रतिनिधत्व वो खुद ही कर सकता है| उदहारण के लिए औरतों का प्रतिनिधित्व आदमी नहीं कर सकता| बहुत सारी बातें जैसे स्वास्थ्य सम्बन्धी बातें है जो टेबल पर नहीं आ पाती| अब सवाल यह उठता है कि भारत में औरतों का प्रतिनिधित्व कितना है? नहीं है तो क्यों नहीं है? औरतों के समस्याएँ दबी ही रहेंगी| दलित वर्ग की अपनी अलग सामाजिक दिक्कतें रही है| आदिवासियों की अलग समस्या रही है| ऐसे में इनका प्रतिनिधित्व संसद में क्या इनके अनुपात है? उनके तरफ से प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई खड़ा भी होता है तो बहुमत के कांसेप्ट के आगे घुटने टेक देता है| 2014 का लोकतंत्र का परिणाम जिसमें मायावती की पार्टी वोट शेयर प्रतिशत के हिसाब से देश की तीसरी बड़ी पार्टी होने के बावजूद भी एक भी सीट नहीं जीत पाई थी|

जैसा की जेम्स ब्राइस का मानना था कि सरकार के कामकाज का मूल्यांकन जनता के कल्याण के आधार पर होना चाहिए| लेकिन आज के सन्दर्भ में दिक्कत यह है कि जनता के कल्याण में असफल रही सरकारें कभी जाती तो कभी धर्म की तुष्टिकरण या भी सूडो राष्ट्रवाद की आड़ लेते दिखती है| लोकतंत्र का एक रूप यह भी है कि एक देश दुसरे देश की लोकतंत्र को बाहरी रूप से प्रभावित करता है| उदाहरण के रूप में श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति रहे महिंद्रा राजपक्षे का भारत के प्रति रवैया सही नहीं था| भारत ने अप्रतक्ष रूप से रॉ (RAW) के सहारे सत्ता का पलटवार कर श्री को गद्दी पर बैठा दिया| हो सकता है कि यह भारत के लिए हित में हो लेकिन श्रीलंका के लोगों के लिए हित में तो बिलकुल नहीं हो सकता है और नाही नैतिक रूप से लोकतंत्र के पक्ष में है| खासकर भारतीय लोकतंत्र के खम्भों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायलय) की आपसी टकराव कोई नई बात नहीं है| वैचारिक टकराव लोकतंत्र की पहचान है लेकिन अक्सर जो टकराव पाए जाते है वो व्यक्तिगत विकास की वजह से होते है| हाल में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों द्वारा व्यक्ति की गई चिंता इसका ज्वलंत उदाहरण है|

विश्व स्तर पर जो लोकतंत्र कमजोर हो रहा है उसके पीछे का मुख्य कारण है “पॉपुलिस्ट राजनीति”| यह पोस्ट ट्रुथ एरा है जहाँ लोगों की भावनाएं लोगों के विवेक पर हावी है| खासकर अमेरिका और यूरोप में मजबूत होती दिख रही पॉपुलिस्ट राजनीति और उसके नेता आधुनिक मानवाधिकार आंदोलनों और यहां तक कि पश्चिमी लोकतंत्र के लिए भी खतरा हैं| हाल में आया “वर्ल्ड राइट्स 2017” रिपोर्ट में मानवाधिकार संगठन ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ ने मानव अधिकारों से जुड़े प्रमुख वैश्विक रुझान और कुल 90 देशों में स्थानीय हालात की समीक्षा शामिल की है| इसमें भी अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के अलंकारपूर्ण भाषण की ओर अलग से ध्यान दिलाते हुए उसे “असहिष्णुता की राजनीति का एक ज्वलंत उदाहरण” बताया गया है| इस रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई गई कि अगर ऐसी आवाजें आगे बढ़ती रहें तो “दुनिया अंधे युग में चली जाएगी|” यह भी लिखा है कि ट्रंप की सफलता से एक खतरनाक और “सबसे ताकतवर आदमी के शासन के प्रति मोह” की प्रवृत्ति उभर कर आती है|

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रिपोर्ट में अमेरिका की ही तरह ऐसी प्रवृत्ति के रूस, चीन, वेनेजुएला और फिलिपींस में भी हावी होने की बात कही गई है| इस रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि ब्रिटेन, फ्रांस, हंगरी, नीदरलैंड्स और पोलैंड जैसे कई देशों में नेता जनता में व्याप्त असंतोष को हवा देकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं| भारत के लोग जानते थे कि मोदी जी किसी को 15 लाख रूपया नही देने वाले है, ब्रिटेन के लोग भी जानते थे कि यूरोपियन यूनियन से बाहर होना उनके हक में नहीं है, अमरीका के लोग जानते थे की डोनाल्ड ट्रम्प मक्सिको की सीमा पर दीवार नहीं खड़ा करेगे नही, वे NATO द्वारा यूरोप की सुरक्षा का खर्च लेगे, फिर भी इन देशो के लोगो ने उस सत्य को नकार कर निर्णय लिया जिसमें विवेक के उपर भावना हावी रही|

लोकतंत्र में कहने को तो है जिसकी जितनी हिस्सेदारी उतनी भागीदारी लेकिन असल ग्राउंड पर ऐसा होता नहीं है| राजनितिक सत्ता कुछ चंद लोगों के हाथ में ही होती है जो अक्सर पार्टी के प्रमुख स्थानों को सुशोभित करते नजर आते है| बाक़ी के लोग तो मोहरे है जो लोकतंत्र को साबित करने के काम आते है| भारतीय इतिहास में कई ऐसी घटनाएँ हुई है जो लोकतंत्र पर सवाल खड़े करते है| ‘इमरजेंसी’ इसका मुख्य उदाहरण है| लेकिन सिविल सोसाइटी का एक रूप दिखा जो उस जख्म का भरता नजर आया| लेकिन जनता पार्टी बनने और जितने के बाद फिर से लुप्त हो गया| कभी कभी कुछ घटनाओं जैसे RTI और बाक़ी के मुद्दों में दिखा जरूर लेकिन सामने नहीं आ पाया| फिर बाद में एकबार फिर अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में सिविल सोसाइटी उभर कर आया जो लोकतंत्र के घाव को कम करता नजर आया| लेकिन इनके सत्ता में आने के बाद वही हाल हुआ जो जनता पार्टी का हुआ था| मै व्यक्तिगत तौर पर यह मानता हु कि किसी लोकतंत्र का खात्मा कोई तात्कालिक प्रक्रिया नहीं है बल्कि साश्वत प्रक्रिया है| इसके समानांतर व्यवस्था खड़ा करना बहुत ही ज्यादा मुश्किल है क्युकी उसके लिए एक बड़ी क्रांति की जरूरत है| इस व्यवस्था का सुधार सिविल सोसाइटी के माध्यम से ही किया जा सकता है|

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