विश्वसनीयता के संकट में न्यायपालिका

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भारतीय लोकतंत्र के चार खंभों में से एक महतवपूर्ण खम्भा न्यायपालिका है| देश कानून, व्यवस्था, संविधान और प्रशासन से तो चलता ही है लेकिन इससे भी बड़ी एक मूल्य ‘विश्वास’ है जो इन सबको चलाता है| लोगों का देश के कानून के प्रति विश्वास, संविधान के प्रति विश्वास और प्रशासन के प्रति विश्वास| हमारा देश भावनाओं वाला देश है| चार खम्भों कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया से विश्वसनीयता को लेकर उतना संजीदा नहीं रहते है जितना की न्यायपालिका को लेकर रहते है| लोगों की अंतिम उम्मीद जो न्याय सुनिश्चित करती है वो न्यायपालिका ही है| न्यायपालिका के आदेश को बड़े ही सम्मान, संजीदगी और आत्मविश्वास के साथ लोग स्वीकार्य करते है| देश में मीडिया की बातें आसानी से दरकिनार कर देते है, बने कानूनों में पक्ष-विपक्ष ढूंढ लेते है, प्रशासन का ढीलेपन पर अक्सर असहमतियां जताते है लेकिन कोर्ट के आदेश को बहुत सम्मान के साथ स्वीकार्य करते है|

देश के लोगों और इन महत्वपूर्ण स्तंभों के बीच एक गहरा रिश्ता रहा है| जब जब भी देश में संसद लोगों के समस्याओं को लेकर जागरूक नहीं रही है तब-तब न्यायपालिका अपने घेरे से बाहर आकर संसद को अपने कामों को याद दिलाया है| उदहारण के रूप में, पहला, संसद पर्यावरण को लेकर चुप थी| गाड़ियों के एमिशन नॉर्म पर चुपी साधे बैठी थी| तब लोगों ने पेटीशन के सहारे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कोर्ट ने समय के साथ नॉर्म को लागु करने का आदेश दिया, जबकी प्राथमिक रूप से यह काम संसद और कानून बनाने वाले लोगों का था| दूसरा, कोर्ट ने ही आदेश दिया कि दिल्ली में बढ़ते प्रदुषण स्तर को कम करने के लिए उन गाड़ियों पर टैक्स बढ़ाए जाए जो प्रदुषण में भागीदार है| यह काम भी कार्यपालिका और विधायिका का ही था| इसके अलावां तीसरा, ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दों पर संसद में पहले ही आम सहमती बन जानी चाहिए थी लेकिन संसद तब जगा जब कोर्ट के उन्हें उठाया|

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कई मर्तबा ऐसा भी हुआ है कि कार्यपालिका अपने राजनितिक हितों को पूरा करने के लिए न्यापालिका के ऊपर अपनी उपस्तिथि दर्ज कराने की कोशिश की है| ऐसे में लोगों ने अपनी भूमिका निभाते हुए सरकार को उखाड़-फेक न्यायपालिका के आत्मसम्मान को सुनिश्चित किया है| लेकिन ऐसा क्या हो रहा है जिसके वजह से न्यायपालिका की विश्वसनीयता अब संकट में नजर आ रही है| न्यायपालिका में अपॉइंटमेंट से लेकर फंक्शन तक में क्या दिक्कत है जिसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जज को आकर प्रेस कांफ्रेंस करना पड़ा जो कि आजादी से बाद से लेकर अब तक नहीं हुआ था| जजों का बाहरी काम अब भी विश्वसनीय रहा है| लेकिन न्यायपालिका के अंदरूनी मामले अब भी चिंता का विषय बना हुआ है| न्यायपालिका के आंतरिक सामंजस्य नहीं बन पाना कहीं न कहीं न्यापालिका के फंक्शन और देश के लोकतंत्र को प्रभावित कर सकता है| इसलिए यह जरूरी है कि लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता, सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित हो|

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हाल ही में न्यायालय ने चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने एक अप्रत्याशित कदम उठाते हुए एक संवाददाता सम्मेलन किया और कहा कि शीर्ष अदालत में हालात ‘सही नहीं हैं’| इस संवादाता सम्मेलन में न्यायमूर्ति चेलमेश्वर के अलावा न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एमबी लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ मौजूद थे| उच्चतम न्यायालय का प्रशासन सही नहीं होना उनके चिंता का मुख्य विषय था| यहाँ पर दो तरह की बातें है| पहली बात यह कि क्या न्यायमूर्तियों को सवंददाता सम्मलेन करना चाहिए था? दूसरी बात यह कि क्या उसके प्रशासनिक मुद्दों पर बात हो? दोनों सवाल महत्वपूर्ण है लेकिन इन दोनों में से ज्यादा महत्वपूर्ण दूसरा वाला है| कुछ लोगों का मत है कि न्यायपालिका के जो अंदरूनी विषय होते हैं, उन्हें सड़क पर लाने का प्रयास करना अनुचित है| मुझे नहीं लगता कि किसी भी प्रकार की बातें परदे के पीछे हो| जब दिक्कत नहीं है तो बात करने में हर्ज ही कहाँ है| कम से कम भाई-भतीजेवाद वाली चीजें भी निकल के आएंगी तभी न्यायपालिका पारदर्शी रह पाएगा|

इस प्रेस वार्ता में एक महत्वपूर्ण बात कही थी| “हम चारों इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो इस देश में या किसी भी देश में लोकतंत्र ज़िंदा नहीं रह पाएगा| स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है”| यह सही बात है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है लेकिन इसे स्वतंत्र और निष्पक्ष करने के लिए जब NJAC जैसे विकल्प आते है तब अपना पूर्ण अधिकार स्थापित करने के लिए नए बिल को ख़ारिज कर पुराने कोलेजियम सिस्टम को ओर रुख करने लगते है| प्रेस कांफ्रेंस में सिर्फ न्यायलय के प्रशासनिक दिक्कतों को उठाया गया है| मुझे ऐसा लगता है कि इसकी चयन से ही असल दिक्कत है जिसके नीव प NJAC को रखा गया था| उनकी चिंता है कि चीफ जस्टिस उस परंपरा से बाहर जा रहे हैं, जिसके तहत महत्वपूर्ण मामलों में निर्णय सामूहिक तौर पर लिए जाते रहे हैं| चीफ जस्टिस केसों के बंटवारे में नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं| वे महत्वपूर्ण मामले, जो सुप्रीम कोर्ट की अखंडता को प्रभावित करते हैं, चीफ जस्टिस उन्हें बिना किसी वाजिब कारण के उन बेंचों को सौंप देते हैं, जो चीफ जस्टिस की पसंद की हैं|

उत्तराखंड का एक उदाहरण देते हुए अपनी बात रखते है| सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने उतराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस केएम जोसफ और सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदु मल्होत्रा को सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त करने की सिफारिश भेजी है| जस्टिस केएम जोसफ ने ही हाईकोर्ट में रहते हुए 21 अप्रैल, 2016 को उतराखंड में हरीश रावत की सरकार को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को रद्द किया था, जबकि इंदु मल्होत्रा सुप्रीम कोर्ट में सीधे जज बनने वाली पहली महिला जज होंगी, जबकि सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल जस्टिस आर भानुमति के बाद वह दूसरी महिला जज होंगी| सुप्रीम कोर्ट में तय 31 पदों में से फिलहाल 25 जज हैं, यानी जजों के 6 पद खाली हैं| इसके अलावां कई और भी प्रश्न है जो न्यायपालिका के विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है| एनकाउंटर केस की सुनवाई कर रहे सीबीआई जज बीएच लोया की मौत के बाद आई नई बातें कहीं न कहीं कोर्ट के प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल खड़ा कर रही है|

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6 जून 2014 को न्यायमूर्ति उतपत ने अमित शाह को फटकार लगते हुए 26 जून को पेश होने का आदेश दिया| लेकिन ठीक एक दिन पहले जज का स्थानांतर हो जाता है| जबकी सुप्रीम कोर्ट का ही आदेश था कि उस केस को शुरू से अंत तक एक ही जज और गुरजात राज्य के बाहर महाराष्ट्र में देखे| कारवां मैगज़ीन में छपे रिपोर्ट से और भी डायमेंशन निकल के बाहर आ रहे है| इसके बाद कुर्सी संभाले न्यायमूर्ति लोया आते है और 15 दिसम्बर को केस की सुनवाई करने का निर्णय लेते है लेकिन उसके दो हप्ते पहले ही रहस्मय तरीके से मौत हो जाती है| न्यायपालिका के सुरक्षा पर यहाँ संदेह पैदा होता है| उस रिपोर्ट में कुछ जजों का मिले होने की भी आशंका जताई गई है| ऐसे में ये सारी चीजें आंतरिक नहीं हो सकती है| न्यायपालिका के आंतरिक चीजें बाहर आनी चाहिए जिससे पारदर्शिता स्थापित की जा सके| ये तो सिर्फ प्रशासनिक बातें हो गई| मुझे लगता है कि जजों की नियुक्ति से लेकर खंड पीठ की नियुक्ति तक की चीजें अभी भी धुंधली है|

खंडपीठों में जजों की नियुक्तियों में दिक्कत बहुत पहले से रही है| ये नियुक्तियां शासकों की सनक और मर्जी के अनुसार होती रही हैं| यह कांग्रेस सरकार के साथ शुरू हुआ और भारतीय जनता पार्टी के शासन में भी जारी है| यह प्रक्रिया उस समय शुरू हुई जब इंदिरा गांधी ने जस्टिस जेएम शेलट, केएस हेगडे तथा एएन ग्रोवर को लांघ कर जस्टिस एएन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था| श्रीमति गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म कर दी गई थी और चुनाव में गलत तरीके अपनाने के लिए उन्हें छह सालों के लिए चुनाव में हिस्सा लेने के अयोग्य घोषित कर दिया गया था| फैसले को शालीनता से स्वीकार करने के बदले उन्होंने आपातकाल लगा दिया और चुनाव कानूनों में ही संशोधन कर दिया| भारत में उस समय सबसे अच्छे न्यायाधीश मिले जब सरकार ने नियुक्ति की थी|

लेकिन अब दलीय राजनीति घुस आई है| इसका प्रभाव दिखने लगा है| कम से कम, हाई कोर्ट में यही देखा गया है कि सत्ताधारी पार्टी ने सबसे अच्छे वकीलों को जज नहीं बनाया है बल्कि उन्हें बनाया है जो किसी खास राजनीतिक दल से जुड़े रहे हैं| यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी कुछ नियुक्तियां संदेह के साए में आई हैं| कुछ उदाहरण है जो कान खड़े कर देते है| पूर्व सालिसीटर जनरल गोपाल सुब्रमणियम का ही मामला लीजिए| सुब्रमणियम की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति में नरेंद्र मोदी सरकार ने अड़ंगा लगाया| सरकार पर अड़ंगा डालने का आरोप लगाते हुए सुब्रमणियम ने कहा, ‘मेरी एक वकील के रूप में स्वतंत्रता से अंदेशा हो रहा है कि मैं सरकार की लाइन का अनुसरण नहीं करूंगा| मेरी नियुक्ति से सरकार की ओर से इंकार में यह कारण निर्णायक है|’ उन्होंने अपने को दौड़ से बाहर कर लिया|

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वास्तव में, उनके कहने से गुजरात पुलिस को सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में हत्या का मामला दर्ज करना पड़ा| जब मुख्य गवाह तुलसीराम प्रजापति को संदेहास्पद परिस्थितियों में मार दिया गया तो, सुब्रमणियम ने मामले को सीबीआई को स्थानांतारित करने की सिफारिश की थी| खास बात यह है कि उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सलाह पर ही अभी के भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को जमानत देते समय उनके गुजरात प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी| ऐसे में जस्टिस कर्णन ने 20 पद पर काबिज जजों और सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था तो क्या गलत कहा था| इसमें जस्टिस कर्णन का अपराध क्या है? क्युकी न्यायपालिका जब इतना कुछ हो चूका है तो आरोप लगाकर जांच की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में क्या बुराई है?

इस संबंध में उन्होंने एक एक शिकायत भी की थी| उन्होंने CBI को इस शिकायत की जांच करने का आदेश दिया था| जस्टिस कर्णन ने CBI को निर्देश देते हुए इस जांच की रिपोर्ट संसद को सौंपने के लिए कहा था| इन आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए CJI ने इसे अदालत की अमनानना बताया था| इसके बाद 7 जजों की एक खंडपीठ का गठन किया गया, जिसने जस्टिस कर्णन के खिलाफ कोर्ट के आदेश की अवमानना से जुड़ी कार्रवाई शुरू की और दोषी ठहराया| कर्णन को उम्मीद थी कि पीएम को लिखे पत्र के जरिए पीएम न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी ध्यान देंगे| लेकिन नतीजा उलटा ही हुआ और सुप्रीम कोर्ट के जजों ने इसे न्यायालय की अवमानना माना| उन्हें सजा सुना दी और रिटायर होने के चंद दिनों बाद ही जेल भेज दिया गया| न्यायपालिका में बहुत सारे डायमेंशन है| न्यायपालिका को पारदर्शी बनाना बहुत जरूरी है नहीं तो विश्वसनीयता का संकट आने वाले समय में प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है| जजों की नियुक्ति से लेकर खंडपीठ की नियुक्ति तक की प्रक्रियाओं को पारदर्शी और जवाबदेही बनाना होगा|

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