मै फ़िल्में देखने का बहुत शौखीन हूँ| जब भी खाली समय मिलता उन मूवीज को देखता हूँ जो मुझसे छूट जाते है| सारी फिल्मे भी नहीं देखता| जो पसंदीदा होता है बुकमार्क कर लेता हूँ जब भी समय मिलता है देखता हूँ| ‘पार्चड, पिंजर सहित कुल नौ मूवीज मेरे पास थी जिन्हें मैं नहीं देख पाया था| उन्ही में से एक मूवी थी “बुधिया सिंह– बोर्न टू रन”| यह फिल्म सत्य घटना पर आधारित फिल्म है|
ओडिशा की झुग्गी-झोपड़ियों से आए बुधिया सिंह ने साल 2006 में महज चार साल की उम्र में 65 किलोमीटर की दौड़ पूरी कर रातों-रात शोहरत कमा ली थी| यह शोहरत सियासत को बिल्कुल अच्छी नहीं लगी| उड़ीसा के सियासतदानों ने नियम-कानून का ओवरएक्सरसाइज करके झुग्गी-झोपडी के लड़के को बुधिया सिंह के रूप में गढ़ने वाले उनके गुरु स्वर्गीय बिरंची दास ने हरा दिया|
बिरांची दास और उनकी पत्नी अनाथ बच्चो के लिए जुडो क्लास चलाया करते थे| हालाँकि उनकी पत्नी आज भी उस क्लास को जारी किया हुआ है| झुग्गी-झोपड़ियों से उठाकर बच्चों को ले आते है| उन्हें शिक्षा देते थे| जुडो सिखाते थे| गरीब परिवार में जन्मे बुधिया को उसकी मां ने एक व्यक्ति को मात्र 800 रुपये में बेच दिया था| इसके बाद बिरांची दास ने उसे गोद ले लिया था|
बिरांची दास ने बुधिया के प्रतिभा को पहचाना और उसे तरासना शुरू कर दिया था| उनके ही मार्गदर्शन का नतीजा था कि चार वर्ष की उम्र में उसने इतना बड़ा करिश्मा कर दिखाया| देश के लिए ओलंपिक के सपना संजोय बिरांची दास को शुरुआत में इसका बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि उन्हें कितने खतरनाक चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है|
उनपर बाल-शोषण का आरोप लगा था| सही बात है आखिर गलती तो की ही थी क्या जरूरत थी झुग्गी के बीके हुए लड़के को वापस चंगुल से छुड़ाकर लाना और गोद लेना| आपको जानकार यह आश्चर्य होगा कि उस बच्चे पर दौड़ने का प्रतिबंध लगा था| जिस माँ ने महज आठ सौ रूपए में बेच दिया था उसी माँ ने सियासत के बल पर झूठे पुलिस केस के सहारे उनसे बुधिया को छीन कर भुवनेश्वर के खेल छात्रावास डालवा दिया|
यही से बुधिया को उनके कोच बिरांची से अलग कर दिया गया| इसके बाद भी पेट नहीं भरा तो उनकी हत्या भी कर दी गई| बिरांची दास के सामने उम्र को लेकर सबसे बड़ी चुनौती यह आ रही थी| वो 2016 तक इन्तजार करने को भी तैयार थे| जभी उन्होंने ओलंपिक 2016 को अपना लक्ष्य माना हुआ था|
वैसे तो कोई अब रहा नहीं जो उसकी आवाज उठा सके| लेकिन एक फिल्मकार अपने फिल्म के सहारे उठाने की कोशिश भी की तो सियासत के शोर में उनकी आवाजें भी फीकी पड़ गई| इस तरह से भारत ने एक बुधिया रूपी उसेन बोल्ट को खो दिया ठीक उसी प्रकार जैसे आइंस्टीन को चुनौती देने वाले बिहार के गणितज्ञ वशिष्ट नारायण की प्रतिभा को खो दिया| हम दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता के चक्कर में न जाने और ऐसी कितनी प्रतिभाओं को निरंतर खो रहे है|
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