एक पैटर्न यह भी रहा है कि जब-जब कोई विशेष दिन आता है तब-तब उससे सम्बंधित व्यक्तियों या फिर संस्थाओं पर चर्चाएँ होतीं है और साल के बाकी दिन ठंडे बस्ते में पड़े होते है| गाँधी की तभी बातें होती है जब उनका जयंती या पुण्यतिथि आता है| वैसे ही हाल में 24 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र का स्थापना दिवस था| एकबार फिर से भारत की स्थाई सदस्यता की बातें उभर कर सामने आने लगी| मै अभी दो दिन पहले गाँव से जब लौट रहा था तभी अख़बार के पहले पन्ने पर मुझे एक समाचार दिखा| उस समाचार में भारत की सदस्यता को लेकर अमेरिका की राजदूत निक्की हेली का एक बयान था| निक्की हेली अपने बयान में कहती है कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र में बदलाव के लिए तैयार है बशर्तें वीटो पॉवर के साथ छेड़ छाड़ न हो| अगर वीटो के साथ छेड़-छाड़ नहीं होती है तो ही अमेरिका इसकी स्थाई सदस्यता की विस्तार के लिए राजी होगा| यह सोचने वाली बात है कि बिना वीटो का स्थाई सदस्यता का मतलब ही क्या रह जाता है|
सबसे पहली बात यह है कि अमेरिका नाम मात्र का और सिर्फ अपने देश के लिए ही लोकतांत्रिक है| अंतराष्ट्रीय राजनीती में हमेशा तानाशाह बनकर रहा है| बिना अपने फायदा का कुछ भी करने को राजी नहीं होता है| किसी भी मज़बूरी का सही फायदा उठाने की अच्छी समझ भी अमेरिका ने बनाई हुई है| इसका एक उदहारण 20वीं शताब्दी के अंत में मिलता है जो मेरे वाक्य को और गंभीर बनाता है| 90 के दौर में जब भारत आर्थिक संकट से जूझ रहा था जब भारत को पैसे की जरूरत थी| भारत का खजाना खाली हो चूका था| ऐसे में जब भारत ने IMF (इंटरनेशनल मोनेटरी फण्ड) से सहायता की गुहार लगाई तब उसे अमेरिकी शर्त का सामना करना पड़ा| उस वक्त भारत के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बाद नर्शिम्भा राव को बनाया गया था| अमेरिका का शर्त यह था कि उसके इराक में चल रहे लड़ाई में भारत उसके जहाजों को तेल भरने के लिए अनुमति दे| मजबूरन भारत को लोन लेने के लिए उसके शर्त पर हुंकारी भरनी पड़ी|
इस निर्णय के लिए आज भी नर्शिम्भा राव की आलोचना की जाती है| चुकी हमारे संबंध इराक से ख़राब नहीं रहे थे| इसके बावजूद कहीं न कहीं हमें उस लड़ाई का हिस्सा मजबूरन बना दिया गया| जबकी सैधांतिक तौर पर होना यह चाहिए कि IMF जैसी संस्थाएं स्वंतंत्र हो जो पूरे विश्व की आर्थिक मदद करे और सलाह दे| लेकिन जमीनी स्तर पर आज भी ऐसा प्रतीत होता है जैसे IMF अमेरिका की कोई बैंक है| उसमे पार्टिसिपेशन में आज भी अमेरिका मेजोरिटी होल्डर है| जब कभी भी इसमें रिफार्म की बातें की जाती है तब तब अलग अलग बहाने होते है| एकबार IMF की मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टीन लगार्ड ने यहाँ तक कह दिया था कि जिस दिन अमेरिका IMF में रिफार्म में लिए राजी हो जाएगा उस दिन वो बेली डांस करेगी| क्रिस्टीन लगार्ड इस बात से अच्छे से वाकिफ है कि अमेरिका कभी भी ऐसे बदलाव के पक्ष में नहीं आएगा| किसी भी अन्य देश खासकर भारत जैसे देशों के वोटिंग अधिकार तो कतई नहीं बढ़ाएगा| चाहे जितनी मर्जी डोनाल्ड ट्रम्प को जिताने के लिए हवन कर लो|
जब अमेरिका में चुनाव हो रहा था तब डोनाल्ड ट्रम्प को जिताने के लिए बेपनाह कोशिशें की गई थी| यहाँ तक हवन से लेकर मिठाईयां तक बाटी गई थी मानो ट्रम्प भारत और अमेरिका दोनों के राष्ट्रपति बनने जा रहे है| जबकी सच्चाई यह है कि अमेरिका में सिर्फ राजनितिक चेहरे बदलते है लेकिन राजनितिक विचारधारा हमेशा एह ही होती है चाहे ओबामा बने, ट्रम्प बने या फिर क्लिंटन| अमेरिका कभी किसी भी बदलाव के लिए तैयार नहीं होता जिसमें उसे सत्ता की साझेदारी करनी पड़ी| मान लीजिए कि भारत में यह कह दिया जाए कि जो डॉक्टर होगा उसकी वोट की वैल्यू एक किसान के 40 वोट के बराबर होगा और ऐसे ही अलग अलग प्रोफेशन के लोगों के वोट का प्रतिशत बाँट दिया जाए तो कैसा लगेगा? यही चीज अंतराष्ट्रीय राजनीती है| अमेरिकी वही डॉक्टर बना हुआ है| जो कही भी किसी भी प्रकार के बदलाव से हमेशा हिचकता है ताकी उसे कभी भी सत्ता की साझेदारी न करना पड जाए|
ठीक ऐसे ही अमेरिका कभी भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता में बदलाव के राजी नहीं होगा| यही कारण है कि अब वो वीटो पॉवर को बहाना बना रहा है| यहाँ पर दो महत्वपूर्ण सवाल है| संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में बदलाव क्यों जरूरी है? और दूसरा यह कि क्या भारत स्थाई सदस्यता लेने की क्षमता रखता है? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में कुल 15 सदस्य है जिसमे पांच स्थाई और 10 अस्थाई है| ये पांचों वो देश है जो द्वितीय विश्व युद्ध के विजेता रहे है| इसमें अमेरिका, यु.के., फ्रांस, रूस और चाइना शामिल है| सिर्फ स्थाई सदस्यों के पास ही वीटो शक्ति है| बाकी के जो 10 है उन्हें दो साल के लिए अस्थाई रूप से नियुक्त किया जाता है| इसलिए मेरा पहला कारण यही है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् आज भी नई राजनितिक समझ को स्वीकार्य करना नहीं चाहती है| संयुक्त राष्ट्र को बने 70 साल से भी ज्यादा हो गए लेकिन संयुक्त राष्ट्र के राजनतिक ढांचे में कोई बदलाव नहीं हुआ| संयुक्त राष्ट्र की स्थापना ‘लीग ऑफ़ नेशन’ के असफलता से हुई थी| यह तर्क दिया जाता रहा है कि द्वितीय विश्व को रोकने में ‘लीग ऑफ़ नेशन’ नाकाम रही थी| तो क्या इसमें बदलाव करने के लिए अगले विश्व युद्ध का इंतजार किया जा रहा है?
आज के 70 साल पहले और आज के राजनितिक, अर्थव्यवथा, डेमोग्राफी, समाज, समझ सभी चीजों में बहुत बदलाव आया है इसलिए इसका परिवर्तन हुत जरूरी है| दूसरा कारण यह है कि IMF की तरह इसका प्रतिनिधित्व भी बराबर नहीं है| अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे देशों का कोई भी प्रतिनिधित्व नहीं है जबकी 75 % से ज्यादा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का काम अफ्रीका से संबंध रखता है| तीसरा कारण यह है कि विश्व शांति बनाए रखने में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् असफल रहा है| मिडिल ईस्ट में हुए शिया-सुन्नी के संघर्ष जो आतंकवाद का रूप ले चूका वहाँ पर मौन रहा| यहाँ तक कि उसमे सिर्फ टेक्निकल सहायता के लिए अमेरिका राजी हुआ था| प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यह कह सकते है कि अमेरिका की उपस्तिथि उस विवाद में कहीं न कहीं रही है| इसपर चर्चाएँ जितनी संयुक्त राष्ट्र में होनी चाहिए थी वो नहीं हो पाई| यही कारण है कि पश्चिम का धाक बना हुआ है|
भारत इसका प्रबल दावेदार है इसमें कोई दो मत नहीं है| इतिहास में भी था और आज भी है| जब जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे तब भारत के पास मौका था कि वो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का हिस्सा बन सके| लेकिन नेहरु की इस पर अलग समझ थी| वो भारत को एक ताकत वाला नहीं बल्कि समाजवादी देश के रूप में देखना चाहते थे| यही नहीं जवाहर लाल नेहरु ने खुद भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में चीन की सदस्यता के लिए वकालत की थी| इसके लिए आज भी उनकी आलोचना होती है| इसके अलावां भारत हमेशा के शांति के पक्षधर रहा है| विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक और एशिया के तीसरे सबसे बड़े अर्थव्यवथा वाला देश ऐसे पदों को सुशोभित करने का क्षमता रखता है| तीसरा, भारत की नेतृत्व की क्षमता भी काफी प्रभावशाली रही है| यही कारण है कि 42 डेवलपिंग देशों वाला L69 समूह का आज भी भारत नेतृत्व कर रहा है जो भारत को स्थाई सदस्यता देने की हमेशा से वकालत करते रहे है| यहाँ तक कि भारत की सेना का सबसे बड़ी भागीदारी संयुक्त राष्ट्र के मिशन में रहा है|
सबसे महतवपूर्ण बात यह आती है कि संभावित चुनौतियाँ क्या है? इसमें बदलाव करने का तरीका यह है कि UN चार्टर में बदलाव किया जाए जिसके लिए दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है| 5 स्थाई सदस्यों में से 3 सदस्य इसके बदलाव के लिए अनिच्छुक रहे है| फ्रांस के मत कुछ कुछ भारत के करीब जरूर है लेकिन एक ही समय पर आम सहमती बन पाना मुश्किल हो जा रहा है| चार देशों में मिलकर एक दबाव समूह बनाने की कोशिश जरूर की है लेकिन राजनितिक कारणों से वो भी एक चुनौती बना हुआ है| चार देश जिन्हें G4 के नाम से जाना जाता है जो संभावित रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के प्रत्यक्ष दावेदार है जिन्हें जोड़ा जाना चाहिए| इसमें भारत, जापान, ब्राज़ील और जर्मनी शामिल है| इन चारों देशों का स्थाई सदस्यों वाले देशों से आमना-सामना रहा है| भारत को अमेरिका और चीन दोनों सपोर्ट करने की स्तिथि में बिलकुल नहीं है| पुराने मित्र रूस भी चुप्पी साधे हुए है| फ्रांस से सूर थोड़े मिलते जरूर है लेकिन U.K. खुद ही अलग थलग पड़ा हुआ है| ऐसे में जरूरत है इसपर जागरूक होकर अपना हक़ मांगने की, ठीक वैसे ही जैसे IMF का जवाब ब्रिक्स बैंक के रूप में दिया था|
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