हिंदुस्तान की इतिहास में आज एक ऐसी भूल सुधारी गई है जो वर्षो पहले जल्दबाजी में ली गई थी| इस कदम को वर्षो पहले हटा देनी चाहिए थी क्यकी यह एक अस्थाई व्यवस्था थी और खासकर तब जब नब्बे के दौर में ‘वहाबियत‘ वहाँ जन्म ले रहा था| संसद में नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने इसका विरोध जताते हुए कहते है कि आज सरकार ने संविधान की हत्या की है|अमूमन सारे एक खास विचार रखने वाले पत्रकार, नेता और लेखकों की यही आवाज थी| हिंदुस्तान उनकी प्रतिरोध की आवाज को भी सम्मान देता है| लेकिन मेरे विचार से ऐसे आरोप लगाना गलत है| क्युकी हो सकता है कि संविधान का इंटरप्रिटेशन अपने आनंदानुसार कर रहे हो, लेकिन जिस भी तरीके से हुआ वो सत प्रतिशत सैविधानिक था|
क्या संविधान भारत के लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार को संविधान में संशोधन की अनुमति नहीं देता ? अनुच्छेद 368 देश की सरकार को किसी भी प्रावधान को सुधारने और हटाने की शक्ति देता है| जब सैविधानिक संसोधन एक सैविधानिक प्रक्रिया की तहत हुआ तो संविधान की हत्या कैसे हुई ? सूचना के युग में एक झूठी नैरेटिव बनाने की कोशिश की जा रही है कि भारत की मौजूदा सरकार ने संविधान की हत्या कर दी| मुझे लगता है फैसले के प्रतिरोध में सवाल उठाने वाले तमाम विद्वानों को यह समझना चाहिए कि संविधान निर्माताओं ने शुरुआत (अनुच्छेद ३) में ही यह सूचित किया है कि “India is an indestructible union of destructible states” इसका मतलब यह है कि भारत का क्षेत्र किसी भी कीमत पर नही टूट सकता है जबकी राज्यों को तोड़ने, क्षेत्र बढाने, घटाने आदि का अधिकार मौजूदा सरकार के हाथ में होगा|
बदलाव के तरीके पर एक और सवाल खड़ा किया जा रहा है कि भारत सरकार ने कश्मीरियों को बिना विश्वास में लिए एकतरफा थोप रही है| पिछले कई सालों से हम उन्हें विश्वास में लाने की कोशिश कर तो रहे है लेकिन कश्मीरियों को भटकाने की गति इतनी तेज है कि हमारे विश्वास जितने और पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित अलगावादियों द्वारा भटकाने में फासला बहुत ज्यादा बढ़ चूका है| दिनों–दिन वहाँ के लोगो का कट्टरपंथी विचारों की तरफ झुकाया जा रहा है| ऐसे में हमारे पास दो विकल्प थे : पहला जो वर्षो से चला आ रहा है (Bottom–up approach) यानी कि लोगों का विश्वास जीतो और उन्हें भारत के मुख्यधारा में शामिल करो| दूसरा (Top-down approach) पहले व्यवस्था बनाओ और फिर उनका विश्वास जीतो| दोनों में से कोई भी प्रक्रिया गलत नहीं है| दोनों अलग अलग विचारधारा वाले पार्टियों के अपने–अपने तरीके है|
वैसे देखने और सुनने में पहला विकल्प बढ़िया लग रहा होगा खासकर समाजवादी लोगों को| लेकिन पहले वाला तरीका यूटोपियन है जो मृगतृष्णा के समान है जिसकी कोई निश्चितता नही है कि कब कश्मीरियों का विश्वास जीत पाएंगे| विश्वास जीतना कोई quantitative term नहीं है जिससे यहाँ बताया जा सके कि यह एक मापदंड है इसके बाद मुक्कमल हो जाएगा| दूसरा विकल्प रियलिस्ट लोगों वाला है| एह बार सिस्टम बन गया फिर लोकतान्त्रिक विचार अपने आप आ जाएगा| उदा. के रूप में प्रथम अफीम की युद्ध के बाद ब्रिटेन ने हांगकांग को चाइना से १०० वर्षों के लिए ले लिया| नब्बे के दशक में जब १०० साल पूरे हुए तो चाइना और हांगकांग का कोई मेल नहीं था|ब्रिटेन के साथ रहने की वजह हांगकांग लोकतान्त्रिक और चाइना कम्युनिस्ट| हांगकांग आज चाइना के लिए कश्मीर बना हुआ है|अंतर यह है कि कश्मीर में लोकतंत्र लाने की बात हो रही है वहाँ कम्युनिज्म|
इसलिए तरीका एकदम लोकतान्त्रिक और सही था|सुरक्षा के लिहाज से मुख्य नेताओं को नज़रबंद करना एक जरूरी पहल है| नहीं तो यह फैसला सरकार को उल्टा पड़ सकता है| अगर हिंसा होती तो भी कोसते और आज जब नज़रबंद करके शांतिपूर्वक हो रहा है तो भी ‘आपातकाल‘ जैसी झूठी नैरेटिव बनाकर सरकार की मजम्मत की जा रही है| इन दोनों विकल्प में भी अगर देखे तो दूसरा विकल्प ही सबसे बढ़िया है जहाँ बिना किसी हिंसा के शांतिपूर्वक हो गया| वैसे भी कश्मीर के उन्ही नेताओं से वर्षो से बातें हो ही रही है| एक तरफ वो साफ़ साफ़ कहते है कि धारा 370और 35A नहीं हटाने देंगे| दूसरी तरफ बहुमत पाने वाली सरकार अपने मैनिफेस्टो में कहती है कि वो हटाएगी| दोनों के बीच क्लैश स्वाभाविक है| पूरे विश्व में दक्षिणपंथियों का दौर चल रहा है| ये लोग वही करते है वो जनता चाहती है|
अब बात आती है क्या ये अन्नुछेद हटाने जरूरी थे ? बिलकुल इसके पीछे बहुत सारे कारण है| पहली बात, यह विशेष राज्य का दर्जा जिस आधार पर दिया गया वो कश्मीर में रह नही गया है| विशुद्ध रूप से बिज़नेस बन चूका है| कश्मीर के अलावां पूरे देश में सरकार का प्लांड खर्चा प्रतिव्यक्ति 1100 रूपए है जबकी कश्मीर में 6000रूपए है| भारत सरकार मात्र 1% जनता पर कुल १०% फंड खर्च करती रही है| वही दूसरी ओर उत्तरप्रदेश में कुल 13% जनता पर मात्र 8% ही खर्च करती थी| फिर भी कश्मीरियों की हालात ऐसे है कि देश के सुरक्षा बल पर पत्थर मारने के लिए पैसे बाटें जाते है| ये पैसे जाते कहाँ है? कश्मीर के पोलिटिकल एलिट सिर्फ इसका आनंद उठाते है| असल में इस कदम के पीड़ित मूल रूप से वहाँ के कुछ लोग है जिसमें नौकरशाह और राजनितिक घराने शामिल है|
इसके ख़त्म होने के तुरंत बाद से कई सवाल खड़े किये जा रहे है| यह कहा जा रहा है कश्मीर को दिए जाने वाला ‘विशेष दर्जा‘ को ख़त्म करने का अधिकार अनुच्छेद 368 के पास नहीं है| कहा यह भी जा रहा है कि बिना कश्मीर के विधानसभा के अनुमति का इसे हटाना गैर संविधानिक है|लेकिन मेरा मानना है कि यह पूरी तरह से सैविधानिक है| पहली बात जब विधानसभा एक्टिव नहीं होती है तो गवर्नर की अनुमति को विधानसभा की अनुमति मान ली जाती है| ऐसा इसलिए क्युकी अन्नुछेद 35A भी राष्ट्रपति के आदेश से लागु हुआ था| इसे संसद से कोई अनुमति नहीं थी| अगर अनुच्छेद 35A सैविधानिक हो सकता है तो फिर सरकार का यह कदम असैविधानिक कैसे हो सकता है? दूसरी बात कश्मीर का पुराना संविधान खुद भारत का एक राज्य अपने अनुच्छेद 3 में मानता है| अगर अन्नुछेद 368 के संसोधन के अधिकार नहीं दिए गए है तो वो Due process of law (DPL) के तहत गलत ठहराया जाना चाहिए|
इसके अलावां एक और विषय बेहद विवादस्पद रहा है| कुछ लोगों का मानना है कि यह अस्थाई अधिकार था जबकि कुछ लोग इसे स्थाई मानते है| हालाँकि सुप्रीम कोर्ट का भी इसपर अलग अलग ब्यान रहे है| 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने “विजयलक्ष्मी झा“ केस में कहा थे कि ये अस्थाई है और यह संविधान के साथ धोखा है| जबकी 2018 में सुप्रीम कोर्ट कहती है कि अस्थाई नहीं है| अगर हम संविधान सभा के वाद विवाद पर नज़र दौडाएं तो पता चलेगा कि यह अस्थाई ही था| 17 अक्टूबर 1949 को जब मौलाना हसरत मोहिनी ने गोपालस्वामी अयंगार से यह सवाल पूछा कि “यह(अनुच्छेद 370) भेदभाव आखिर किसलिए?” अनुच्छेद 370 के मुख्य कारीगर रहे गोअपस्वामी अयंगार ने उत्तर दिया था कि “कश्मीर अभी पूरी तरह से भारत के साथ जुड़ने के लिए परिपक्कव नहीं हुआ है| हमारा एक हिस्सा पाकिस्तान के पास है“| उनका यह उत्तर इस बात का सन्देश देता है कि अनुच्छेद 370 अस्थाई था| यह उम्मीद की गई थी कि आने वाने समय में इसे हटा दिया जाएगा|
संविधान सभा में भी बहुत सारे लोग इसके पक्ष में नहीं थे| यहाँ तक कि डॉ. आंबेडकर ने आर्टिकल-370 का ड्राफ्ट बनाने से इनकार किया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि इसकी जरूरत ही नहीं है| इसी वजह से पंडित नेहरु ने इसे ड्राफ्ट करने का जुम्मा गोपालस्वामी अयंगार के हाथों दिया था| वोटिंग के दिन तो डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा का बहिष्कार भी किया था| अब्दुल्ला को अनुच्छेद 370 पर लिखे पत्र में आंबेडकर ने कहा था कि “आप सारी सुविधाएं भारत से लेंगे और चाहेंगे कि आपका विशेष संविधान भी हो, जो अन्य भारतीय राज्यों से अलग हो तो ये भारतीय नागरिकों के साथ भेदभाव होगा और गलत भी होगा“| यहाँ तक कि अन्नुछेद 370 के मुख्य कारीगर गोपालस्वामी अयंगार भी इससे सहमत नहीं थे| आयंगर ने एक और खत में लिखा, “समय निकलता जा रहा है. मैं समझ नहीं पा रहा हूं. बहुत सी बातों से मैं सहमत नहीं हूं”| यहां तक कि आयंगर ने एक बार आजिज आकर संविधान सभा से त्याग पत्र देने की धमकी भी दे डाली थी| उन्होंने कहा कि ये ठीक नहीं हो रहा है|
डॉ. आंबेडकर के अलावां इतिहास में दावा यह भी किया जाता है कि नेहरू ने पटेल को सूचित किए बिना ही शेख अब्दुल्ला के साथ अनुच्छेद 370 के मसौदे को अंतिम रूप दिया। संविधान सभा की चर्चा में मसौदे को पारित करवाने की जिम्मेदारी गोपालस्वामी अयंगर को मिली, लेकिन प्रस्ताव को सभा में मौजूद सदस्यों द्वारा फाड़ दिया गया। उस समय प्रधानमंत्री नेहरू अमेरिका में थे। सरदार और अब्दुल्ला के रिश्ते ठीक नहीं थे। ऐसे में अयंगर ने मदद के लिए वल्लभभाई पटेल की ओर रुख किया। उन्होंने पटेल से कहा कि यह मामला नेहरू के अहम से जुड़ा है, नेहरू ने शेख को उनके अनुसार ही फैसले लेने को कहा है। लिहाजा, वल्लभभाई पटेल ने मसौदे को स्वीकृति दे दी। हालाँकि सरदार पटेल ने इसे भारत की संप्रभुता के लिए खतरा बताया था| यहां तक कि भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद ने भी इसका विरोध किया था।
आज तमाम देश में मुस्लिम नेता इसका विरोध कर रहे है| यहाँ तक कि नेताप्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद इसे संविधान की हत्या तक मान रहे है| जबकी सत्य है कि इस कदम ने संविधान की हत्या होने के बचा ली|सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान के साथ धोखा पहले ही 2017 में बता चुकी है| 1976 में जब 42वां संसोधन हुआ था तब तिन शब्दों में से एक शब्द ‘धर्मनिरपेक्षता‘ संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया था| तब कश्मीर ने इसे अपने संविधान में जोड़ने के लिए मना कद दिया था| जबकी ठीक तीन साल पहले देश की सर्वोच्च न्यायलय ने इसे संविधान का ‘बेसिक स्ट्रक्चर‘ बताया था| जम्मू और कश्मीर का यह कदम वास्तव में संविधान का हत्या करते नज़र आया था| उस समय ऐसा नहीं था वहाँ पर चरमपंथ हावी था| स्तिथियाँ काफी अच्छी थी| यहाँ तक कि उसके बाद कई मर्तबा कांग्रेस की रही है और यही गुलाम नबी आज़ाद वहाँ के मुख्यमंत्री भी रह चुके है| अफ़सोस कि किसी ने इसको जोड़ने की इच्छाशक्ति नहीं जताई|
बुद्धिविजी वर्ग जो इस कदम के खिलाफ है वो अपनी बात को रखने के लिए नागालैंड का उदहारण दे रहे है| उसी शह पर कश्मीर को भी जस्टिफाई करने की कोशिश कर रहे है|नागालैंड को “Asymmetric federalism” को बेस मनाकर यह अधिकार दिया गया था|यहाँ तक कि 5वां और 6वां अनुसूची में ऐसे प्रावधान देश ने बाकी के वर्गों को दिया हुआ है| लेकिन कश्मीर को ऐसी बेसिस पर ‘स्पेशल स्टेटस‘ नहीं दिया गया था| वो सामाजिक और संस्कृतिक नहीं राजनितिक कारण की वजह से दी गई थी| जिसका एकदिन ख़तम होना यह था|और वही हुआ| इसलिए मुझे लग रहा है कि ऐसा टूना जायज नहीं है| अगर भारत ने कश्मीर को बाकी के राज्यों जैसा जोड़ दिया तो इसमें दिक्कत ही क्या है? क्या इसमें अभी भी किसी को शक है कि भारत देश का अभिन्न हिस्सा है?
मै तो यह मानता हूँ कि अगर यह विशेष दर्जा ख़तम हुई है तो इसके लिए कश्मीरी ज्यादा जिम्मेदार है| अगर वहाँ पर सोशल इंटरडिपेंडेंस होता है और कश्मीरी पंडित रह रहे होते तो शायद सरकार इस व्यवस्था को कुछ और समय के लिए आगे बढ़ा सकती है| लेकिन सच्चाई यह है कि जिस उद्देश्य के लिए दिया गया था वो उद्देश्य रहा ही नहीं| यह देश की अन्प्रभुता और आंतरिक सुरक्षा खतरा बन चूका है|वहाबियत वहाँ अपना पैर पसार चुकीं है| उनके प्रोटेस्ट में उपयोग होने वाले पाकिस्तानी झंडा और ISIS का झंडा इस बाद का जीता जागता प्रमाण है| इसलिए यह सरकार का जरूरी और सही कदम है| यह जितना सही हिंदुस्तान कीई संप्रभुता के लिए है उतना ही कश्मीरियों के लिए भी है| पूरा हिंदुस्तान कश्मीरी भाइयों और बहनों को हाथ फैलाकर गले मिलनें के लिए आमंत्रित करता है|
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