यह एक पुराना मिथक है कि बिहार राज्य राजनीती का केंद्र बिंदु रहा है| बिहार से राजनीती में कई बदलाव आए है| बिहार के विधानसभा चुनाव का ओपिनियन पोल निकालना और उसपर विश्लेषण करना, विश्लेषकों के लिए काफी मुश्किल सा प्रतीत होता रहा है| यहाँ हर चुनाव में कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है| विधानसभा के इस चुनाव में भी वहाँ की जनता ने एक समझ बुझ वाली जागरूकता का प्रमाण दिया है| जितना हारना लोकतंत्र का एक हिस्सा है| यह उतना मायना नहीं रखता जितना कि लोगों ने चुनाव को किस रूप में लिया| इस चुनाव में बहूत सारे समीकरणों को भी ध्वस्त होते पाया गया है|
यह समय है कि बीजेपी अपनी पार्टी की आत्म चिंतन करे और महागठबंधन आत्मअवलोकन| इस चुनाव में नितीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी जीत गए हो लेकिन काफी कुछ हारे भी है| अपनी पुरानी मोदी विरोधी जिद्द की वजह से सबकुछ गवाया यहाँ तक कि लालू यादव से हाथ तक मिलाया जिसके खिलाफ सालों से राजनीती करके मुख्यमंत्री बने रहे| पिछले चुनाव में 115 सीटें जितने वाला 101 सीटों पर लड़ने को मजबूर सिर्फ जिद्द की वजह से ही हुआ| इसका जवाब भी जनता ने दिया है जिसमे सबसे ज्यादा हानि इन्ही की हुई है|
नकारात्मक राजनीती पर जनता की असहमती
बीजेपी की हार का सबके बड़ा कारण रहा है नकारात्मक राजनीती जिसके वजह से काफी कुछ खोया है| जब जब ऐसी चीजो की शुरुआत की है तब तब हजारों की संख्या में अपनी वोट गवायाँ है| इससे महागठबंधन का लाभ हुआ है| महागठबंधन ने बारीकी से बस उनके नकारात्मक राजनीती का सामना किया है ठीक उसी प्रकार जैसे शोएब अख्तर के गुस्से वाले तेज बॉल को सचिन तेंदुलकर बड़े ही प्यार से कट करके बाउंड्री तक पहुचाया करते थे जिसमे बस तकनीक की जरूरत होती थी ना कि जान की|
सबसे पहले बीजेपी ने डीएनए राजनीती की शुरुआत की| फिर क्या नितीश कुमार ने उसको स्वाभिमान जैसे तकनिकी शॉट से जोड़कर उसका भरपूर फायदा उठाया और वो सफल भी हुए| यहाँ पर बीजेपी को जरूरत थी उस गलती की समीक्षा करके अपने आप को सूधारने की| लेकिन उसके बाद फिर वही गलती दोहराई गई गवर्नस जैसे मसलो को गाय तक पहुचाके| हालाँकि शुरुआत में गवर्नेंस की बातें की गई लेकिन बाद में रास्ता भटक गए और प्रश्न को दोबारा पढना मुनासिब नहीं समझा और अप्रासंगिक उत्तर लिखते गए जिसे लोगों ने नाकारा|
उसके बाद फिर वही गलती बिहार में दोहराई गई जो नेपाल में की गई थी| लोगों के दिल में एक सकारात्मक प्रतिबिम्ब बनाने के लिए मोदी जी ने नेपाल में अपने आप को कृत्रिम परोपकारी वाली भावना भरने की कोशिश की थी| इसमें मीडिया का भरपूर उपयोग किया गया था लेकिन उसका प्रभाव एकदम उल्टा पड़ा और मीडिया सहित भारत सरकार को गो बैक के हैश टैग का सामना करना पड़ा| वही गलती बिहार में मोदी जी ने पैकेज के सन्दर्भ में की|
पैकेज देना बुरी चीज नहीं है लेकिन जिस अंदाज में दिया गया वो अपने आप ऐसी भावना भरने वाला काम था जैसे बिहार के लोगो को के ऊपर कोई एहसान कर रहे हो या बोली लगा रहे है| इस मुद्दे को भी बहूत ही बारीकी से एहसान जैसे तकनीक से खेला और बढ़िया बाउंड्री मिला| सबसे बड़ी बात जिस चीज ‘विकास’ के लिए मोदी जी को लोकसभा चुनाव के पहले जाना गया था उसका अंश भी कही नहीं मिला| एक आधा अधुरा और घिसी पिटी एजेंडा जिसका कोई निष्कर्ष नहीं दिख रहा था| ऐसे लग रहा था जैसे मैनिफेस्टो महज एक चुनावी फॉर्मेलिटी के लिए बनाया गया हो| इसे लोगों ने बड़े ही जोरदार तरीके से नकारा|
बिहारी जनता में जागरूकता के प्रमाण
जैसा की एक बहुत बड़ा मिथक रहा है बिहार को लेकर की वहाँ के लोगों में राजनीती के प्रति सही समझ काफी लम्बे अरसे से रही है| सबसे पहली और बड़ी बात यह कि इलेक्शन कमीशन द्वारा लिए गए बेहतरीन फैसले NOTA पर अपनी प्रतिक्रिया देकर लोगों को एक अच्छा संकेत दिया है| पहले लोगों के अन्दर एक प्रकार का बहाना होता था कि उन्हें कोई भी कैंडिडेट पसंद नहीं है इसलिए वो वोट करने नहीं जाते थे| इसलिए इलेक्शन कमीशन ने नोटा जैसी चीजों का उपयोग करके जनता की प्रतिक्रिया का तवज्जो दिया|
बिहार की जनता में इतनी बढ़िया समझ है कि नोटा का बढ़िया से उपयोग किया| यहाँ तक कि नोटा का वोट प्रतिशत उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी ‘रालोसपा’, मांझी की पार्टी ‘हम’ और मायावती की ‘बीएसपी’ आदि जैसी मुख्य क्षेत्रीय पार्टियों से अधिक है| दूसरी बात यह कि बिहार की जनता में धार्मिक कट्टरता की अच्छी समझ है| यही कारण है कि ओवैसी की पार्टी को बिहार में मुंह के बल खानी पड़ी| ऐसी बात नहीं कि धार्मिक कारण की वजह से ओवैसी के उम्मीदवार हारे है, बल्कि ओवैसी ने सिर्फ वही पर अपने उम्मीदवार उतारे थे जहाँ पर मुस्लिम बहुसंख्यक थे|
इससे यह पता चलता है कि बिहार के मुसलमानों में काफी अच्छी समझ है| इसके अलावां तीसरी बात यह है कि दोनों ही मुख्य पार्टियों की तरफ धार्मिक पत्ते खेलने की कोशिश की गई लेकिन जनता ने सिरे से उनके खेल को ख़ारिज किया| वहाँ की जनता ने जो धैर्य दिखाया है वो काबिल ए तारीफ है| किसी के बहकावे में नहीं आई नहीं तो चुनाव के पहले होने वाले छिटपुट झड़प लाजमी थे| ऐसी भी बात नहीं है कि वहाँ मौके नहीं आए| रामनवमी और मुहर्रम जैसे पर्व भी आए जिसका गलत फायदा किसी भी पार्टी को नही उठाने दिया|
चौथा समझदारी वाली बात यह थी कि लोगों ने डरकर वोट नहीं किया| लोगों के सामने बढ़िया मैनिफेस्टो रखने के बाजाए नब्बे के दशक को याद करवाकर डराने की कोशिशे भी की गई लेकिन जनता ने उन्हें कामयाब नहीं होने दिया| जबकी लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस का यह काफी चर्चित आईडिया होता है मुसलमानों को डराकर वोट लेने की| लेकिन इस चीज की दशा बिहार के चुनाव में काफी भिन्न रही है इस बार| बिहार चुनाव को हिन्दू बनाम मुस्लिम, जातीय आरक्षण बनाम धार्मिक आरक्षण और भारत बनाम पाकिस्तान करने की भी कोशिश की गई लेकिन यहाँ की जनता ने इस बात क भी नजरंदाज किया|
एनडीए की चुनावी समीकरण पर जनता ने पानी फेरा
बिहार चुनाव के परिणाम का भविष्यवाणी करना राजनितिक पंडितो के लिए काफी मुश्किल वाला काम था| लेकिन भविष्यवाणी करना ही था तो एक माध्यम बनाया धर्म और जाती को दिमाग में रखकर| बहूत सारे एग्जिट पोल ने NDA की जीत सुनश्चित की थी यह मानकर कि महागठबंधन की धार्मिक और जातीय गुम्बद में सेंध लगी हुई है| वो इस नतीजे पर इसलिए पहुचे थे क्युकी उन्हें लगता था ओवैसी के बिहार में एंट्री करने से और मुलायम को अलग से लड़ने से महागठबंधन का धार्मिक समीकरण गड़बडाएगा|
वही दूसरी ओर मांझी जी को NDA में जाने की वजह से और पासवान को पहले से ही NDA में होने की वजह से वो इस बात से आश्वस्त थे कि महागठबंधन का दलित वोट न सिर्फ पूरी तरह से टूट चूका है बल्कि पूरी तरह से NDA की ओर केन्द्रित हो चूका है| कुशवाहा का जो वोट नितीश कुमार के लिए सकारात्मक हुआ करता था उन्हें लगा कि वो उपेन्द्र कुशवाहा को NDA में जाने की वजह से उसमे भी सेंध लग चूका है| लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं पाया क्युकी ये बिहार की जनता है| यह बहूत सारे राजनितिक प्रयोग को विफल करने में हमेशा से चर्चित रही है|
इससे बढ़िया समझ वहाँ की जनता में और क्या हो सकती है कि उन्होंने सारे जातिगत और धार्मिक समीकरणों पर पानी फेर दिया जो विकास के मुद्दा को भ्रमित कर रहे थे| एक प्रकार का यह सबक भी बिहार की जनता ने दिया है कि अगर बिहार में चुनाव लड़ना है तो एजेंडा लेकर आना पड़ेगा| जितना समय अमित शाह जी जातिगत और धार्मिक फील्डिंग लगाने में बर्बाद किया उतना अपने मैनिफेस्टो बनाने और उसके प्लान पब्लिक डोमेन में दिया होता तो शायद बिहार परिणाम का नतीजा कुछ और ही बयाँ कर रहा होता|
राजद के संकट मोचन कहे जाने वाले रामकृपाल यादव को अपने पाले में खीचने और पप्पू यादव को अलग करवाने से अमित शाह को शायद लगा होगा कि यादव वोट में भी सेंध का काम कर चुके है लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्युकी यादव के नेता ना तो रामकृपाल यादव रहे है और नाही पप्पू यादव| इसलिए उस वोट में भी सेंध लगाने में नाकामयाब रहे है| पूरी तरह से जातिगत और राजनितिक कार्ड खेलना उनके लिए सही नहीं रहा| अंत में जब लास्ट कार्ड बचा था भारत पाकिस्तान वाला वो भी खेला यह कहकर कि अगर बीजेपी हारती है तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे जो कि उनके लिए उल्टा पड़ गया|
अंत में निष्कर्ष के रूप में यही कहना चाहूँगा कि एक तिस्लिम जो था देश के अन्दर NDA का एकाधिकार, NDA के अन्दर बीजेपी के एकाधिकार और बीजेपी के अन्दर मोदी और शाह का एकाधिकार वो बुरी तरह ध्वस्त हुआ है| बिहार का यह परिणाम उनके नकारात्मक और एजेंडाहिन राजनीती का प्रतिफल है| दूसरी ओर नितीश कुमार अपना बलिदान देकर बिहार में मरी हुई कांग्रेस और राजद को एक बार फिर जिन्दा कर दिया है| चुकी 2010 के चुनाव में नितीश कुमार के 115 सीटें थी जो कि घटकर 71 पर पहुच गया है वही दूसरी ओर कांग्रेस और राजद जिसका क्रमशः 4 और 22 सीटें थी वो अब क्रमशः 27 और 80 पर पहुच गए है|
नितीश कुमार ने यह सब सिर्फ और सिर्फ पुराने बदले की भावना में ही किया है| भले ही नितीश कुमार बिहार के सबसे प्रभावशाली मुख्यमंत्री रहे हो लेकिन कही न कही अपने सिधांत से समझौता भी करते नजर आए है नहीं तो वो लालू यादव से हाथ नहीं मिलाते| लालू यादव भी यही चाहते थे उनकी खोई होई जमीन वापस मिल जाए और वो मिल गई है दोनों बेटों का राजनितिक करियर भी बन गया अब देखना यह होगा कि इनका गठबंधन कितने दिनों तक चलता है| अगर लम्बे समय तक चलता है तो क्या पर्दे के पीछे होने वाले समझौते अख़बार की सुर्खिया बन पाएँगे, यह भी एक बड़ा सवाल है|
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बेहद खूबसूरती से एक एक चीज़ का विश्लेषण किया गया है
अद्भुत !
धन्यवाद आपको|